गुरुवार, 13 मई 2010

अभिलाषा....अंतिम दर्शन की

आज मुझे आलिंगन देकर मुक्त करो हर भार से...
प्रियतम मेरा हाथ पकड़ कर ले चल इस मझधार से...

नयन मौन हैं किन्तु प्रणय की प्यास संजोये बैठे हैं..
भाव हृदय के स्मृतियों में अब तक खोये बैठे हैं...
तुमसे तृष्णा पाई है तृप्ति तुमसे अभिलाषित है..
विगत दिवस आकुल श्वासों में..खुद को बोये बैठे हैं..
निरीह हूँ लेकिन तुमसे तुमको माँग रहा अधिकार से..
प्रियतम मेरा हाथ पकड़ कर ले चल इस मझधार से..

मेरे स्वप्न तुम्हारी हठ की हठता पर नतमस्तक हैं...
कुछ प्रश्न प्रतीक्षक बने खड़े जिनके उत्तर आवश्यक हैं..
"मन" सोच रहा निज जीवन का सारांश तुम्हें ही कह डालूँ..
ये सत्य है जग को मालूम है, पर उत्तम कहो कहाँ तक है..
मेरे संशय को दो विराम , तुम अर्थपूर्ण उद्‌गार से..
प्रियतम मेरा हाथ पकड़ कर ले चल इस मझधार से..

आयाम छुये थे कभी प्रेम ने निच्छलता ,सम्मान के..
भेंट चढ गये सभी हौसले , झूठे निष्ठुर अभिमान के.
अब कौन दलीलों से व्याकुल उर की इच्छायें बहलाऊँ..
मेरी आस का दीपक लड़ते-लड़ते बस हार गया तूफान से..
ये अन्तिम जीवन सन्ध्या थी..अब चलता हूँ तेरे द्वार से..
काश तू मेरा हाथ पकड़ मुझे ले जाता मझधार से..
मुझे ले जाता मझधार से.....

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

आह! अतिशय मार्मिक भाव