गुरुवार, 13 मई 2010

वे शब्द कहाँ से लाऊँगा .........

कुछ भीतर मेरे टूट रहा है
ये प्रेम रेत सा छूट रहा है
कारण क्या दूँ इस करुणा का
क्यूँ "मन" यूँ मन से रूठ रहा है
अब कलम हो चुकी शिथिल मेरी
और वाणी रिक्त विचारों से
विधवा सी हर रचना है मेरी
है दूर ये अब श्रंगारों से
ये करुण कथा करुणान्त हुई
अब कैसे इसे सुनाऊँगा
जो मेरी व्यथा का विवरण दें
वे शब्द कहाँ से लाऊँगा
तुमको पाने के सब प्रयास
अब बचकाने से लगते हैं
जो भाव भक्ति थे श्रद्धा थे
वे ठग समान अब ठगते हैं
जो स्वप्न दिखाये तुमने वो
पल्कों पर अब तक जलते हैं
हे"प्यार" मेरे दुर्भाग्य तेरा
धरती अम्बर कब मिलते हैं
पर फिर भी मिलन की आस में मैं
हर बार क्षितिज तक आऊँगा
जो मेरी व्यथा का विवरण दें
वे शब्द कहाँ से लाऊँगा
आभास, विरह की बलिवेदी पर
निज शीश स्वयं दे आये हैं
मधुमास अभिलाषी उपवन ने
किस्मत से पतझड़ पाये हैं
संकोच हो रहा है मन को
सच को दर्पण दिखलाने में
गीत भाव को बाजारों में
आज बेचकर आये हैं
मैं व्यथित हृदय की आह मात्र
किस सुर में तुम्हें सजाऊँगा
जो मेरी व्यथा का विवरण दें
वे शब्द कहाँ से लाऊँगा
तुम लौकिक सा संसार प्रिये
मैं निज अन्तर का अंधकार
तुम हो कुबेर का धन अथाह
मैं एक भिक्षु की भिक्षा सार
तुम नभ की ऊँचाई को भी
करती आलिंगनबद्ध सखे
मैं एक स्वाति की बूँद मात्र
खोज रहा निज का आधार
इसलिये प्रयत्न ही छोड दिये
क्यूँकि न तुम्हें पा पाऊँगा
जो मेरी व्यथा का विवरण दें
वे शब्द कहाँ से लाऊँगा
जो मेरी व्यथा का विवरण दें
वे शब्द कहाँ से लाऊँगा

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

हे ! प्यार मेरे दुर्भाग्य तेरा
धरती अम्बर कब मिलते हैं

अद्भुत, अप्रतिम, अनुपम