मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में दहलीज पर,
सांतिये नेह के बस बनाता रहा
दीप देहरी पे मन बस जलाता रहा !!
तुम मिले तो लगा मन के हर कोन में,
फिर बसंती पवन का बसेरा हुआ
तुम मिले तो लगा की ग्रहण छट गया,
मन में फिर आस का इक सवेरा हुआ !
इस सवेरे के उगते हुए सूर्य पर,
अर्घ्य निज प्रेम का मैं चढाता रहा !!
दीप देहरी पे मन बस जलाता रहा !!
तुम मिले तो लगा प्रश्न हल हो गए,
वे जो मेरी तुम्हारी प्रतीक्षा में थे
तुम मिले तो लगा जैसे हट से गए,
सब वो संशय जो भावुक समीक्षा में थे !
फिर बनी प्राण , सुख, शान्ति, आधार तुम
मैं तुम्हे अंक भर मोक्ष पाता रहा !!
दीप देहरी पे मन बस जलाता रहा !!
मौन उपमाएं हैं तुम को क्या मैं कहूं,
तुम ही पत्नी, सखा, प्रेमिका, हो प्रिये
हो मेरे गीत तुम, गीत में शब्द तुम,
तुम ही लय, भाव, तुम भूमिका हो प्रिये
मुक्त निज कंठ से, मन से हर मंच से,
तुम को गाता, तुम्ही को बुलाता रहा !!
दीप देहरी पे मन बस जलाता रहा !!
3 टिप्पणियां:
आपकी कविता अच्छी लगी
कवि की कलम को नमन
बहुत सुंदर
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